भारतीय संस्कृति और जाति प्रथा...

     पिछले कुछ दशकों-सदियों में भारत पर अनेकाएक आताताईयों ने आक्रमण किए हैं,खैर वो तो मैदानी आक्रमण थे,आज देखते हैं कुछ गुप्त-आक्रमण जो हमारे जन मानस पर गंभीर प्रभाव डालते हैं....

वर्ण व्यवस्था....आधुनिक परिवेश में बोले तो जाति प्रथा....क्या है ये,क्या है इसका भारतीय संस्कृति या भारतीयता से संबंध...? आईये देखते हैं....
निश्चय ही वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति भारत से हुई हो....किंतु इसका उद्देश्य समाज में उच्च निम्न का भेद व्याप्त करना था,यह कहना उतना ही गलत होगा जितना कि अमेरिका को एक यूरोपीय राष्ट्र समझना.....

किसी भी नियम का अनुसरण करने पर उसके अनुसरण करने वाले की बुद्धि विवेक भी संलिप्त होनी चाहिए.....

नियम या विधेयक कोई भी बुरा नहीं होता,पर जब ये नियम एक प्रथा का रूप धारण करलें,तब सामाजिक,मानसिक रूप से हानि देने लगते हैं....

उदाहरणार्थ,सती,जौहर जैसी घटनाएं शुरू हुईं तो उसके पीछे का सिर्फ विदेशी आक्रांताओं के शारीरिक,मानसिक शोषण से बचने का एक उपाय मात्र था.....किंतु यह आगे चलकर एक प्रथा बन गई,जब लोग बिना आक्रमण,शोषण के ही इसे जारी रखने लगे....
भारत के कुछ क्षेत्र में इसे करने पर उनकी अपनी शान मानने लगे....जो सामाजिक रूप से बिल्कुल ही क्रूरता भरा कदम था....ठीक उसी तरह यह कथित जाति व्यवस्था के साथ हुआ होगा...
बाद में कुछ धार्मिक विद्वानों ने इसे वर्जित करार दिया और इनमें भारी बदलाव(रिफॉर्म्स) किए.....


"जाति" शब्द की परिकल्पना पाश्चात्यिक देन है...पश्चिमी बुद्धिजीवियों ने अन्योन्य कुकर्मों से लिप्त फ्रांस,स्पेन जैसे पश्चिमी देशों पर अनुसंधान कर वहां होने वाले शोषण और भेदभावों को भारत पर थोपने का काम किया है,वहां के पोप के कारनामों को भारतीय ब्राह्मणों से जोड़ा तथा जेम्स जैसे राजाओं को भारतीय क्षत्रियों से,इस बात को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि वर्तमान स्थिति इससे अलग नहीं है...पर यह सिर्फ उनके कहे हुए वक्तव्यों को प्राथमिकता देने की वजह से ही है....

किंतु क्या प्राचीन भारतीय इतिहास भी इससे ग्रसित था...
आइए देखते हैं....

आज भी वैश्विक,राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर कोई नियम या विधेयक पारित कराया जाता है...तो कुछ समय के लिए वह लाभदायक होता है....किंतु धीरे धीरे उसको कमजोर करने के विकल्प खोजने जाने लग जाते है....

ठीक उसी तरह भारतीय संस्कृति में कथित जाति व्यवस्था जन्म आधारित ना होकर,कर्म आधारित थी....
जिसमें समय के साथ उसका अनुसरण करने वालों ने ही एक प्रथा का रूप दे दिया...
इसका सार इन्ही वक्तव्यों से निकला जा सकता है....

भारतीय परिपेक्ष्य में युगों को चार चरणों में विभाजित किया गया है...
सतयुग
त्रेतायुग
द्वापरयुग
कलियुग


चलो आते हैं सतयुग में...
महाराजा हरिश्चंद्र एक कथित भंगी का कार्य करने में तनिक सा भी न हिचके....
और न ही उनको अपना सामाजिक धर्म खो जाने का भय ही सताया कभी....वहां पर कथित जाति प्रथा का नामोनिशान ही नहीं मिलता है....

जन्मना जायते शूद्रः,संस्काराद् द्विज उच्यते ।

                                     ―(स्कन्दपुराण)©


अर्थात् - प्रत्येक व्यक्ति जन्म से शूद्र होता है, उपनयन संस्कार में दीक्षित होकर ही द्विज बनता है।©

प्रत्यवायेन शूद्रताम्"*―(४.२४५)©


अर्थात् – जो व्यक्ति ब्राह्मण कुल में पैदा हुवा,नीच संगत तथा गलत आचरण से वह भी शूद्र ही कहलायेगा...

इससे साफ झलकता है कि उसका आचरण निर्धारित कर रहा है कि वह किस जाति को अनुसरण करेगा....

फिर आता है त्रेतायुग, जिसमें कुछेक जातीय उदाहरण मिल जाते हैं,किंतु इन पर गहन अध्ययन करने पर ये शंकाए भी दूर हो जाएंगी कि वास्तव में इस युग में भी यह व्यवस्था जन्म आधारित ना रही होगी....
और अगर रही भी होगी तो वर्तमान परिपेक्ष्य की तरह, कि एक चिकित्सक अपने पुत्र को चिकित्सक ही बनाना चाहता होगा,अभियांत्रिकी अपने पुत्र को अभियांत्रिकी...
किंतु निश्चय ही यह जन्म आधारित ना होकर कार्य आधारित रही होगी...
इसका पक्ष कुछ इन पंक्तियों से लगाया जा सकता है..

मेरा घर सुरसरि के तट,तुम रहते जग जलनिधि के तट हो...।

मैं गंगा ही का मांझी हूं,तुम भवसागर के केवट हो।।

मजदूर कहीं मजदूरों से मजदूरी लेते हैं भैया....।।।

मल्लाह कहीं मल्लाहों से मल्लाही लेते हैं भैया...।।।।

अपने को ऋणी समझते हो तो ऋण तुम वहीं चुका देना....।।

मैंने तुमको है पार किया,तुम मुझको पार लगा देना....।।

         (वनवास को प्रस्थान करते वक्त केवट और भगवान के मध्य का वार्तालाप)


इन पंक्तियों से साफ परिदर्शित होता है कि मल्लाह भगवान राम और अपनी जाति को मिलाने के लिए कार्यों में समानता ढूंढ रहा है...

फिर आता है द्वापरयुग जिसमें कुछ कुकर्मों का परिदृश्य देखने को मिलता हैं.....बात स्त्रियों तक पहुंचने लगी थी...यह भी याद रखना होगा कि युग कोई भी हो,रहते साधारण मानव ही थे,एक तरफ से सभी व्यक्ति ईश्वर तो नहीं रहे होंगे। उनके कुकृत्यों को सीधे संस्कृति से जोड़ देना रत्ती भर भी उचित न होगा,किंतु अधर्म पर चलने वाले लोगों का साझा प्रतिशत धर्म पर चलने वाले लोगों की तुलना में बहुत ही कम रहा होगा...जो वर्तमान में बिल्कुल इसके उलट हो चुका है...

अंत में आता है कलियुग,जिसने सब कुछ तहस नहस करके रख दिया....


उन युगों में बनाए गए नियम भी आधुनिक नियमों की तरह अनवरत कटाक्षित होते हुए चले गए हैं,अब इसमें ये कहना कि नियम बनाने वाले लोग गलत रहे होंगे,किसी अज्ञानता से कम न होगा....
इंसान के अनुसरण करने के तरीके बदले हैं ना कि विधेयक....
हम अपने तरीके से विधेयकों को अनुसरण कर यह कैसे कह सकते हैं कि इसे बनाने वाला गलत होगा.....इसमें बदलाव(Reforms/परिवर्तन) किया जा सकता है....भारतीय संस्कृति कट्टरता या Conservative Mind को सपोर्ट नहीं करती..."परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है" गीता की ही देन है...जो भारतीयता का एक आंशिक उदाहरण है...


हमें समय के साथ गतिशील रहने व उसे बदलने का अधिकार हमारी अपनी संस्कृति ने दिया है....हम इसे लोकतंत्र का मौखिक उदाहरण कहें तो इसमें तनिक भी अतिशयोक्ति न होगा...
नास्तिकों को भी भारतीयता में एक विशिष्ट दर्जा प्राप्त है...

भारत एक प्राचीनतम मानवयुक्त भू भाग है...और वर्तमान में एक मात्र शेष बची हुई सभ्यता है जो आज भी एक महाशक्ति है....पर्शिया,मिस्र,जैसी महान सभ्यताओं को आज damaged Country का दर्जा मिला हुआ है...
इस उपलब्धि में इस व्यवस्था का काफी योगदान रहा होगा जो सहस्त्राब्दियों से समाज को एक और बैलेंस्ड रखता रहा होगा...


पश्चिमी देश अपने देश में रोजगार हेतु तरह तरह के वोकेशनल कोर्सेज की शुरुआत कर रहे हैं जिसमें Carpenter,Plumber,Barber जैसी तकनीकी शिक्षाएं प्रदान की जा रही हैं...जिन्हे सदियों पहले इन्हीं लोगों ने शुद्र करार देकर भारतीय परिवेश में बदनाम किया था.....एक शब्द कैसे ही गलत हो सकता है?सोचनीय है,विचारणीय है....


पर क्यों सिर्फ भारतीय व्यवस्थाएं ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति बटोरती हैं...
जापान की बाराकुमन जाति दशकों से अस्पृश्यता का दंश झेल रही है...
इस पर कोई अंतरराष्ट्रीय मीडिया बात नहीं करना चाहता....
Source:BBC News

Source:TheNewsMinute

यूरोप प्रभावित हमारी मीडिया तथा अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने दशकों से यही दिखाने का प्रयास किया है की देखो कैसे कथित अपर-कास्ट ने तुम पर अत्याचार किए,जो सिर्फ कुछ वर्ष पुराना ही है,...उसे उल्लिखित कर वे पूरी की पूरी भारतीय संस्कृति पर ही उंगलियां उठाते रहते हैं,अपने आप को शत प्रतिशत सारे अवगुणों से दूर किए हुए,एकदम श्वेत.....

पर यह कभी नहीं बताते, कि कितना तप बल लगा है सभ्यता को संरक्षित रखने में....

जब पश्चिम घुटने बल चलना सीख रहा था,तब भारतीय वैज्ञानिक(कथित ब्राह्मण) सूर्य से पृथ्वी की दूरी माप रहे थे,तारों का आकार पता करने में जुटे हुए थे,उनकी पहुंच ग्रहों,नक्षत्रों तक पहुंच चुकी थी....

क्षत्रिय सिर्फ महलों में ही नहीं बल्कि कटकटाती ठंड धूप में रेगिस्तानों में पड़े रहते थे,परिवार से दूर,सिर्फ और सिर्फ National Security के लिए....
Source:TheScroll.com
इस इमेज-आर्टिकल के उल्लेख का प्रयोजन सिर्फ उदाहरणार्थ है.....जिसमें कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय इतिहासकारों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं.....

परमाणु बम के जनक(Father of Atom Bomb) कहे जाने वाले John Openheimer भारतीय गीता दर्शन से बहुत ही प्रभावित थे और गीता में ही उल्लिखित अणु,परमाणु,जीवन,मरण पर अनुसंधान कर परमाणु बॉम्ब का अविष्कार कर दिया....

 Source:TheWired.uk
   अब बात आती है अंतर्जातीय विवाह की,इसे कैसे सही ठहराया जा सकता है?hnn इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि अंतर्जातीय विवाह में काफी पहले से ही समस्याएं हो रही हैं,लेकिन इसमें भी एक पांडित्य तर्क हो सकता है...
एक युवती,जो पली बढ़ी किसी अन्य परिवेश में,वह कैसे योजन कर पाएगी जब जाएगी किन्ही और लोगों में....कैसे एक अभियांत्रिकी की पुत्री क्षत्रिय के घर जिंदगी विधवा होकर गुजार देगी,उसके मायके में परिवेश ही ऐसा ना मिला.!!!...कैसे एक ब्रह्म-कर्म करने वाली युवती एक व्यापारी के साथ हिसाब किताब करते जीवन यापन करेगी....शायद ऐसी ही कुछ समस्याएं रही होगी...जिससे एक लड़की को परिवेश बदलने में ज्यादा समस्या न हो,वह ठीक उसी तरह जीवन यापन कर सके जैसे कि अपने मां बाप के घर करती थी....

अब बात करते हैं,शोषण की,क्या सच में उच्च वर्ग वालों के द्वारा निम्न वर्ग का शोषण हुआ है....?शोषण किसका नहीं हुआ है...क्या उसी राजमहल में रहकर अग्रज भाई को राजा बना देना,शेष बचे अनुजो को सेनापति या राजकुमार बने रहने देना शोषण नहीं है,!!!.....वास्तव में,सोचने को हर तरफ से शोषण ही शोषण है,सोचने को जितना है उतने में ही सारा भोग है,विलास है,यही असल में वाताविक लोकतंत्र है,जहां लड़ाई सत्ता की नहीं,बल्कि धर्म की हो,कर्तव्यों की हो.....✍️

उपसंहार में हम यही कह सकते हैं कि हमें विदेशी श्रोतों को ज्यादा विश्वसनीय मानना त्याग कर,क्या असल है,वास्तविक है...इस पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करना होगा.....तभी भारत से मानसिक गुलामी दूर हो सकती है,और हम वास्तविक आजादी हासिल कर सकते हैं......एक देश की पहचान उसकी भाषा,बोली,लिपि,इतिहास,रहन सहन,सभ्यताओं से ही होती है...हम ऐसे ही इसे संरक्षित कर सकते हैं,अन्यथा हम खुद को कोंसकर ही जिंदगी गुजार देते चले जा रहे हैं,और गुजार देते चले जा रहे हैं और अनवरत चले ही चले जा रहे हैं.....✍️

                                            ~उदयराजसिंह'अपराजित💥

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Comments

  1. अप्रतिम लेख sir और जानकारी के लिए बहुत शुक्रिया

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    1. बहुत बहुत आभार जय भाई💕👏

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  2. आज के समय में जाति और वर्ण के बीच का अंतर, और दोनों का इतिहास, इसकी जानकारी हर किसी को होना बहुत आवश्यक है।
    इसके उपर आपका लेख अत्यंत सराहनीय है, बहुत खूब👌👌

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  3. आज के समय में जाति और वर्ण के बीच का अंतर, और दोनों का इतिहास, इसकी जानकारी हर किसी को होना बहुत आवश्यक है।
    इसके उपर आपका लेख अत्यंत सराहनीय है, बहुत खूब👌👌

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  4. Religiology and spirituality Expert😜

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  5. Well fine and analytical article...
    Keep on

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  6. I've to be addicted for your article....❣️👌👌

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  7. Well written article sir🙏

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  8. Your way of writing always amazed me, good luck for your future works also💓

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