परिकल्पना और उलझन.....(Poetry)
कहना तो चाहता था मैं उससे,पर कह नहीं पाया
कि शायद वो मना ना कर दे कहीं....
ये दोस्ती उदासीन ना हो जाए कहीं....
ये हंसता चेहरा झुक ना जाए कहीं उसके सामने आने को,या ना ही आने को.....
कह तो दूं अब भी कि देर नही हुई है अभी..
कि डर है कि कहीं जवाब में ना आ जाए भूल जाने को...
उलझ कर, उलझा हुआ, उलझनों में कि कुछ न ही समझ आए अब...
ना बचा है कोई मुझे अब समझाने को.....
कदम चल पड़ते हैं झिझककर या झिझक आ जाती है सोचकर कि चल दिए हैं हम मयखाने को....
अब तकाजा नहीं रहा वक्त का,वक्त के तकाजे हम हो गए हैं खुद...
गाना गुनगुना रहा है मुझे,हम गुनगुना रहे हैं गाने को...
ये उदासीन हंसता चेहरा मायूस न हो जाए कहीं उसके सम्मुख आने को....
या ठान ले आखिर में,ना ही आने को...✍️
~उदय'अपराजित💥
कैसे लिखते हैं आप इतना बढ़िया, भाव, रस सब होते हैं आपकी इन कविताओं में। अद्भुत, अप्रतीम। 👏
ReplyDeleteWow
ReplyDelete