तुम और हमारी परिकल्पनों में तुम....

सुनो, तुम्हें पता है....
मैं तुम पर लिखता हूं तो लोग तुम्हें कोई इंसान समझ बैठते हैं...
और उसमें भी कोई प्रेमिका तो कोई घनिष्ठ मित्र या कोई अतीत का स्नेह....
 असल में तुम तो परिकल्पना हो मेरी.. जो अभी तक नहीं हो आकार में तुम...
 या हो कोई आभास जिसके होने का संशय हमेशा ही बना रहता है.... 
या ना होने का संताप भी...
प्राकृतिक हो तुम,जिसे देखा नहीं जा सकता...
आत्मीय हो तुम,महसूस करने की भावनाओं से बहुत ही दूर....
कहीं इस संयोग से पृथक,तो विरह के करीब...
परिकल्पनाओ में भी स्वप्न हो तुम,और स्वप्न में भी एक परिकल्पना मात्र....
तुम्हें नहीं पता पर, कि सुन नहीं सकती तुम हमें...या किसी को भी...
पास तो हो मेरे,पर फिर भी दूर...और बहुत दूर...
तुम्हारी स्वर रहित मधुरिम व्यंजनी सुनकर प्रलाप हो जाता है मुझसे ही अक्सर.....
 पर छू न पाता उन शब्दों को, ना ही मानवीय रूप से और ना ही परिकल्पित रूप में....
बस तुम दिख जाती हो हर जगह जब जब मैं अकेला होता हूं या किसी के साथ.... तुम्हारी ही खोज में....
 पर तुम नहीं मिलती, जो मेरी कल्पनाओं की प्रतीक सम हो....
 तुम मिलो या ना मिलो, ऐसे ही लिखता रहूंगा,अंत तक जब तक यह विचार अमर है, तब तक तुम्हारी स्मृतियां अटल है....
 जो कभी घटित ही नहीं हुई असल में... पर तुम हो कहां,कैसे,क्यों काफी नहीं है बस तुम हो!!!!,हमारी परिकल्पनो में ही सही....✍️
                              ~उदय'अपराजित

Comments

  1. I will pray that you may find that person soon.Heart touching lines and a feeling of true love which never fades away.All the best

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