ट्रेन....❣️
और फिर तुमने हांथ छोड़ दिया...
शहर छोड़ने को....
तुम ठिठुर रही थी,हम कांप रहे थे...
तुम जा रही थी,हम रुके हुए थे...
तुम्हारी आंखें बंद थी,हम देखे ही जा रहे थे...
घड़ियां भाग रही थी जैसे कोई अंतरिक्ष का पिंड घूम गोल दारे में घूम रहा हो...पर वक्त रुका हुआ था...
सब रुक सा गया था,सिर्फ तुम ना रुकी...
और तुमने हमारे सूखे होंठो को अपने होंठों से दबाकर मसल दिया....
शायद इस मसलने का मसला भी आखिरी ही था...
प्रेम में डूबे दो प्रेमियों को दुनिया भले न दिखे...पर दुनिया उन्हें जरूर देख लेती है...
कि भीग गया पूरा चेहरा हमारा....तुम्हारे आंसुओ से सराबोर..
और फिर तुम पीछे खड़ी ट्रेन में चढ़ ली....
निहारता रहा तब भी कि कहां बैठती हो...
और तुम इमरजेंसी खिड़की की आक में आके बैठ गई...
शायद मेरे लौटकर जाते हुए देखने को आखिरी तक...
और फिर तुम्हारी ट्रेन चल दी..पर हम न चले...वहीं थमे से एक शिवालिक की भांति एकदम निष्ठुर....
पहले तो थोड़ी दूर तक,खिड़की से दिखती रही...
फिर दिखना भी बंद हो गई रफ्ता रफ्ता सी,हमने आंख बंद कर ली फिर,तुम्हारा "ना दिखना" ना दिखने को...
तब से रोज ही वह ट्रेन नंबर को जांच लिया करता हूं, कि कहां पहुंची होगी वो...
बावजूद इसके कि मालूम है हमें,अब नहीं हो उसमे तुम...
पर फिर भी तसल्ली हो जाती है,जब जब उस ट्रेन को इंटरनेट पर देखता हूं...
अब जब भी वो ट्रेन देखता हूं,तुम्हारी स्मृतियां चलायमान हो चलती हैं,फिर वो चाहे सामने से हो या फिर इंटरनेट पर...
वो जुड़ाव अब ट्रेन से हो चुका है,जो तुमसे हुआ था कभी...
पर माध्यम तुम ही हो...
ये कहना भी मुश्किल होगा कि ट्रेन माध्यम थी हमारे मिलने की,या तुम माध्यम हो इस निर्जिवित जुड़ाव की....
या ये जुड़ाव ही है माध्यम इस अवस्था की,जो महसूस किया है हमने एक साथ,पर तुमने कुछ और,हमने कुछ और...
एक ही समय में,एक ही जगह,एक ही गति से...
कि गति बढ़ती चली गई महसूस करने की... कि कब तुम आगे निकल गई छोड़कर,बावजूद इसके मालूम था तुम्हें कि हम उल्टी दिशा में नहीं,दिशा उल्टी ही वेग से बह रही है...
पर तुमने जाना चुना,और हमने थमे रहना,उसी इंतजार में...
वैसे राह तकने वाला स्थिर ही रहता है...
और फिर मेरा इंतजार भी स्थिर हो गया, वो भी स्थिर वेग से...✍️
~~उदय'अपराजित💥
Comments
Post a Comment