तुम्हें पता है मैं तुम्हें कहां-कहां नहीं ढूंढता....
तुम्हें पता है मैं तुम्हें कहां-कहां नहीं ढूंढता....
कभी अंधेरों का इंतजार करते हुए चांद देखने को....
तो कभी अमावस का,जिसमें चांद ही नहीं दिखता...
एकदम अकेला,शांत,काली घटाओं में...
कारण कि उस अंधेरे में भी दिख जाती हो तुम जहां कोई नहीं दिखता....
या दिखता भी है तो इतना Ahar कि देखने की ललक तक नहीं होती और ना पहचानने की लालसा...
कभी-कभी तो ढूंढता हूं तुमको उस बारिश की सीप में जो मेरे बालों पर गिरकर अधरों से होते हुए निकल जाती है जमीन को छूने की तरफ....
जो भिगा जाती है सूखे होंठो को, जो तुम्हारे इंतजार में सूख चुके होते हैं..
मैं तुम्हें देखा है धूप की उस कोर में जहां से छांव शुरू हो रही होती है....
पर बस क्षण भर के लिए और तुम गायब हो जाती हो अक्सर..
उस कोट के साथ ही तब जब पूरे में अंधेरा छा जाता है तब मैं देखना शुरु कर देता हूं इस आसमान की तरफ...
उस जमीन से बिना कोई उम्मीद किए तब तक जब तक फिर से सूरज की कोई किरण नीचे नहीं आती...
और मैं फिर से निराश निउम्मीद, वह दुनिया देखने लग जाता हूं जिसमें सब दिखता है सिवाय तुम्हारे....
~उदय'अपराजित💥
Comments
Post a Comment