तिराहे और एकटकी....(Script)
डिपार्टमेंट से निकलते ही देखा कि बाहर बहुत भीड़ छाई हुई है...याद आया फिर कि काउंसलिंग चल रही होगी कॉमर्स डिपार्टमेंट में,जो सामने ही पड़ जाता है हमारे डिपार्टमेंट के!!!..सुबह भी काफी भीड़ थी. वहीं पर!!!... कि निकलते ही पहुंचे किशोरी कैंटीन,1 चाय ली, बैग से 2 कचौड़ियां निकाली..
और खाने लग गया,फिर मन किया कि चलो साइबर चलते हैं,और चल दिए...!!
कि क्या ही पता था,अब क्या ही होने वाला था.. मालूम ही होता तो 2 कचौड़ियां और खा लेते....
कि हुआ सहसा कि हुआ ऐसा कि किशोरी-कॉमर्स-इकोनॉमिक्स वाले तिराहे की मोड़ से मुड़ते हुए टकरा गए एकाएक उससे... कि उसका माथा हमारे होंठो से टकराता हुआ,अब हाइट भी कुछ कम ही थी उसकी..मुझसे!!एकदम से दोनों के मुंह से बस "सॉरी" निकला और देखने लगे एक दूसरे की चोट की तरफ...और झिझक गई वो कुछ अजीब ढंग से...!!!
लेकिन ये क्या!!!! मैं रुका सा था,वहीं पर.. क्यों,कैसे और किसलिए....क्यों ही न मालूम हमें,शायद उसे भी ये...
ऐसा क्यों लगा ये ही है वो जिसके बारे में मैने कितनी ही कविताएं गढ़ी हैं...जो हमारी हर एक हरफों की कपोलकल्पित नायिका हुआ करती है....
पर इसका ये भांप पाना, कि ये ही वही है..उतना ही मुश्किल लग रहा था...वो परिकल्पनाओं में गढ़ी काव्य पंक्तियों को वास्तविकता का रूप देने का वक्त आ गया था शायद अब...अभी तक की सबसे सुंदर रचना लग रही थी मुझे वो!!!!
लेकिन उसपर हमारे द्वारा की हुई काव्य रचनाओं से थोड़ा कम...
ऐसा लग रहा हो जैसे उन कविताओं को उस वास्तविकता में जी रहे हों हम...पर वो क्षणिक था या दीर्घकालिक...ये तो अभी न ही मालूम था.. पर उसकी आंखो में भी एक इंतजार था,जो उस एक क्षणिक-क्षण को दीर्घकालिक में तब्दील कर रहा था...
हम भी रुके हुए थे वहीं पर...दोनों साथ...शायद उसकी काउंसलिंग हो चुकी थी...अभी पूछे भी न थे उससे कुछ पर सब पूछ चुके थे मन ही मन...जवाब भी दे दिए थे उसने सारे सवालों के....hnn hnn,वैसे ही...मन ही मन!!
कि अब वक्त आ रहा था नाम पूछने का,अचानक हमारे कुछ बोलने से पहले ही कान में आवाज पड़ती है, कि मोटर चल गई...पानी भरलो!!!...वो आंटी थी!!!hnn hnn मकान मालकिन आंटी,देखे तो 5 बज रहे थे सुबह के..
उठते ही पानी भरे और कैम्पस आने के लिए तैयारी करने लगा....✍️
~उदय'अपराजित💥
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