भावों से भावों का आक्रोश....
कभी कभी हम कुछ भी लिख दिया करते हैं...
और प्रकाशित करने से पहले ही उसका पढ़ लेना...वो भी किसी और के नाम के साथ...
क्या भावों में कोई एकाधिकार नहीं होना चाहिए...?
क्या जो हम सोचते हैं...
उसे लिखने में जरा सी देर हो जाने पर,वो भी किसी और का हो जाएगा....
भाव हैं हमारे,कोई अर्थशास्त्र तो नहीं...
भावों में इतनी चंचलता कैसे ही हो सकती है...
आते ही उनका स्पंदन कर दिया जाए तो ठीक....
अन्यथा किसी और के....
इतनी भी प्रतीक्षा नहीं होती उनसे....
अगर वो हमारे हो ही नहीं सकते...
तो आते ही क्यों हैं हमारे पास...
अगर उन्हें किसी और का ही होना होता है....
वैसे प्रतीक्षा करना,ना करना तो एक अलग बात है...
पर किसी और के हो जाने पर भी मेरे ही बने रहना...
ये कितना ही उचित है...
खैर,हम उनके अपने स्वतः निहित किए गए अधिकार पर उंगली नहीं उठा सकते...
हम कर सकते हैं तो बस,एक न्यायोचित कदापि...
जो बड़बड़ाया करता है अक्सर....
जब जब वो भाव हमारे पास होता है....
या जब जब,बहुत दूर....
हं,इस सांसारिकता से एकदम विरक्त....
तब हम तुम्हें अपने भावों में ले आते हैं...
तुम कौन???
हं हं,तुम्हीं....
हम भावों से ही कह रहे हैं...✍️
~उदय'अपराजित💥
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