मृगतृष्णा....(Poetry)
प्रेम,लोभ, मद में मदांध....
चाहे जल हो या कस्तूर सुगंध...
सब ही मृग में ही बैठा है...
तू बाहर फिर क्यों खोज रहा...
चाहत है तुझको,कुछ पा लेने की...
ललक है कुछ जी लेने की...
तो खुद में जी,तू खुद से जी...
ये तोड़ भ्रम औरों से कुछ भी...
क्यों औरों की बातों में आता है तू...
तू सहसा कोई समर शेष...
या अवतार शेष के हो,या खुद ही हो तुम लखन वेश...
तू नहीं बना किसी वाहक का,
और कुछ नाम कि खातिर,कुछ दाम के खातिर...
यूं मृगतृष्णा में रहते हैं,यूं भाव कृष्णा में रहते हैं...
कुछ नाम किए,कुछ बदनाम हुए...
जो निडर रहे,वो चलते रहे...
जो डगर से उतरे,पलट गए...
किसकी बातों में आता है तू...यह गूंगा बहरा निर्मम समाज...
यह गूंगा बहरा निर्मम समाज...
चल तोड़ bendiyan,बढ़ आगे...
जो कल था तेरा,वो ना है आज...
जो कल था तेरा,वो ना है आज...
जो कल होगा तेरा, वो है आज...
गर डरे हुए हो प्रतिष्ठा खातिर..
तो याद करो सीता माई को..
सब त्याग दिया,वन को धारण कर...
ना पूछा प्रभु से कुछ भी कारण कर..
लांछन समाज का एक अंग हैं...
उसको भी तू तृष्णा कर अब...
ना सुनेगा तेरी कोई अब..
तू खुद को ही श्वेत-कृष्णा कर दे...
अभियोग भी तो पूरक है पवित्रता का..
सम स्नेह वात्सल्यता का...
किस मृग तृष्णा में आता है तू,तोड़ इसे तू बाहर आ....
है प्रतीक्षित दुनिया यह...तू तोड़ जंजीर तो बाहर आ...
तू ढूंढ रहा वो दुनिया है,जो दुनिया तुझमें रहती है...
दिल में अपने झांक जरा,उसमे भी गंगा बहती है...
जो कहता है तो कहने दो,जो जाता है सो जाने दो...
तू खुद में खुद को समझाकर,खुद को खुद से समझाने दे....
कि ये मित्र स्नेह प्रेम मिथ्या है...
है शत्रु घृणा आलंबन बस...
जहां करे उद्दीपित, थामो तुम...
जहां हो nirgt तो थम जाओ...
है नहीं भी इसमें कोई दोष..
होना ना चाहिए तनिक भी रोष...
कारण कि है मात्र उद्दीपन बस...✍️
घनघोर अंधेरा छाया हो,इस मृगतृष्णा सी दुनिया में...
तुम्हीं प्रकाश स्वयं के हो,तुम्हीं परिणाम अविक्रिया में...✍️
और यह चक्रव्यूह है कुरुओं सा...
तुम भी अर्जुन अब बन जाओ..
हो मृग तुम ही इस पुनीत वन के...
तृष्णा छोड़ अब बढ़ जाओ..
तृष्णा छोड़ अब बढ़ जाओ..✍️
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