आशावाद और प्रेम...(Poetry)
आशावादी इंसान होना कोई बुरी बात नहीं...
मैंने हमेशा से ही प्रेम पर लिखा,बावजूद इसके कि हमें कभी प्रेम नहीं मिला,हमारे अनुरूप....
जिसे मुझे प्रेम हुआ...
उससे मैं नहीं कर सका...
इस पर भी प्रश्नचिन्ह उठता है...?,
उत्तर में "शायद यही प्रेम है!!!" के अलावा कुछ भी जवाब निरर्थक होगा....
मुझे जिससे हुआ,वो हमारा नहीं हो सका...
ऐसा नहीं कि हमें किसी से भी प्रेम हो जाए...
हम प्रेम में सिर्फ उसी के पड़े,जिसे कभी हमसे भी हुआ हो...
जब हम पहुंचते हैं अपने प्रेम की गंगा को कई उतार चढ़ाव के सैलाबों से पार करते हुए...
वो आगे बढ़ चुका था प्रतीक्षा के झारोंखो को छोड़ते हुए,किसी महासागर में गिरने को...
प्रेम प्रतीक्षा छोड़कर आगे बढ़ जाए,इस पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है...
किंतु शायद प्रेम पूर्ण करने के लिए दोहरे मापदंडों को पार करना आवश्यक नहीं होता...
एकल रूप में भी स्वत: ही बिना किसी के अनभिज्ञ प्रेम किया जा सकता है,और पूर्ण भी किया जा सकता है...
वैसे तो प्रेम पूर्ण नहीं ही होता,पर होता है...अगर प्रेम में प्रतीक्षा का संगम हो जाए,ठीक उसी तरह जैसे गंगा में यमुना का.....और भावों की विलुप्ति हो जाए,जैसे उसी संगम में सरस्वती की....
वैसे जीवन में आगे बढ़कर भी प्रेम किया जा सकता है...,
और किसी और के साथ रहकर भी उसके साथ साथ किसी और से भी किया जा सकता है...
मैंने वही मार्ग चुना....
भले ही सामाजिक प्रश्नचिन्ह उठे अपनी जीवनसाथी के प्रति प्रेम रूपी कपट करने का,किसी और के प्रेम में होने को...
जवाब में मैं क्या ही कर सकूंगा.....
सिवाय इसके कि प्रेम में उसके हमेशा से ही रहा,अब कैसे रोक दूं वो संगम, कि हो जाऊं प्रयागराज से राजस्थान की अरावली....
उसी से है अब भी,पर मैं उसे इस सांसारिकता में नहीं मानता अब.....या मानता हूं अपने हृदय के किसी ध्रुव पर...
जहां के सीमांत तापमान में सिमटी बैठी हुई हैं उसकी स्मृतियां...
यूं सामने से तो नहीं देखा कभी...
ना ही कभी बातें ही की सामने से....
वास्तविकता में कैसी भी सज धज के रसिक श्रंगार से आती हो वो...
पर स्मृतियों में हमारी हमेशा से ही वो सादगी से आती रही है अब भी अभी तक...
वैसे ये कहना भी गलत होगा, कि मुझे कभी प्रेम नहीं मिला...
प्रेम हमेशा से ही हमारा रहा....कभी बसंत हमारा रहा,तो पतझड़ भी हमारा रहा...
हवाओं में नमी के हम हो गए,तो उसका सूखापन हमारा हो गया...
पुस्तकों के हम हुए,तो उनपे लिखे एक एक शब्द हमारी जिह्वा से होते हुए गतिज इंद्रित्व तक चलते चले गए....
हम अपने आस पास मौजूद हर वजूद से प्रेम में रहे,बदले में हमें भी मिला उनसे.....
जब तक हमने ध्यान नहीं दिया....
ध्यान देते ही वो सब परिकल्पना मात्र रह गया बस....
और हम हो चले फिर से दुकेले.., उस भीड़ को छोड़ते हुए...एक हम और एक हमारी प्रेम पर लिखीं कविताएं अमृत्व का जलज खिलाती हुई किसी बंगाल की खाड़ी से निकलकर अरब महासागर में मिलने को...✍️
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