कितना दर्दभरा होता है एक लेखक होना...(Poetry)

कभी कभी लगता है
कितना दर्दभरा होता है एक लेखक होना...
तो कभी कभी कितना आनंदमय...

सामान्य पुरुष और लेखक होने में अंतर बस खुरेदने मात्र बस का है...
पुरानी गहरी दबी हुई यातनाएं,याचनाएं,परिकल्पनाएं...
सामान्य पुरुष भुला देते हैं वो दौर,समय,वो काल...
जिसमें रहे हैं वो डरावने...
और जा रहे होते हैं,सच से भागते हुए कहीं दूर...

लेखक होने में होता है वेदना को छेदना जैसा कुछ...
जो दबा रह चुका होता है...
कहीं अंदर...
जिसे बाहर नहीं निकाला जा सकता...
ऐसी पीड़ा,ऐसा दर्द...
निचोड़ लाते हैं शब्दो से...

नहीं भुलाते कभी...
छोटे से छोटा दर्द...
जिसे लिखते हैं नासूर...
एकदम नासूर...
जिसे पढ़कर ही महसूस किया जा सकता है...
पढ़कर थोड़ा ज्यादा...
उससे भी ज्यादा,जितना नासूर होने में पीड़ा होती हो...

खुरेदते रहते हैं वो जख्म...
जान बूझकर...
ये जानते हुए, कि सिवाय उदासी के है नहीं कुछ...
लिखते हुए कुछ देर की उदासी के बाद का फिर खुद पर हंसना...
कि क्यों करना पड़ता है जान बूझकर खुद को उदास...
क्या कविता हंसते हुए नहीं लिखी जा सकती...
जरूरी होती हैं...

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