राम और अयोध्या..(Poetry) {मनोसंवाद से निखरित विशेषताएं...)

रामायण और अयोध्या....
जहां होता ना हो भाई सा प्रेम...
ऐसा कोई वर्ण नहीं..
अपने प्रण में भाई त्याग दूं..
मैं ऐसा कोई कर्ण नहीं....❣️

कर्ण नहीं मैं लक्ष्मण हूं...
सम पिता हमारे भाई हैं...
दशरथनंदन हैं सूर्यचंद्र...
कौशल्या हमारी माई हैं...

सत्ता का लोभ हलाहल विष...
जो पीते ही मर जाएगा...
फिर मैं तो अवतार शेष का हूं...
क्यों भला निवाला जाएगा...

माता सीता निज भाभी हैं...
हम दशरथनंदन के अनुज पुत्र...
श्रेष्ठ राम हैं सदा रहे...
ये लखन भरत तो सर्वदा क्षुद्र...

इतने में बोले भरत लाल...🌠
यह आज प्रतिज्ञा करते हैं...
सिंहासन तो अग्रज राम का है...
यह भरत तो बस सेवक इक है...

और राम छोड़ दे राजकाज...
हम बैठे महलों में तोड़े अनाज...
यह निंदनीय, अति विचारणीय....
अयोध्या हेतु है कलंकनीय...

अवधकाल का कलंक है...
सियराम बिन सब रंक हैं...
बात पूरी हो ना सकी..

बोल उठे रघुवंशमणि...
कि तोड़ दो अपने प्रण...
और मात्रादेश सराखों पर..
था पित्रादेश भी यही लखन...
हमको अब वन तो जाना है...
धर्माचार निभाना है...

रसधार बह चली आंखों से...
तब सभागार सब मौन हुआ...
था संयोग समय का भी...
अभियोग, वियोग भी प्रौन हुआ...

सूरज के आगे बादल आए...
घनघोर अंधेरा छाने को,वायु ने भी वचन निभाए...
कि सूर्यवंश में हैं रामचंद्र,भला कैसे देखे सूरज इसको...
तब देवों से बोले दिवसी तारे...
कि शीघ्र रात्रि अब कर डालो...
सुनते ही चंद्रदेव बोले,है राम नाम में चंद्र लगा...
इससे हक नहीं तुम्हारा है...,हम नहीं देखते जाने को...
अब घटित होगा सब समयरूप...
हैं नहीं तुम्हारे अवधभूप....✍️

सुन रहे वक्तव्य राम भी थे...
कुछ खुश भी थे,सूखे प्रान भी थे...
Hn वही प्रभु श्रीराम थे,hnn वही प्रभु श्रीराम थे...✍️

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