प्रेम नहीं,स्नेह था तुमसे....(Poetry)
प्रेम नहीं स्नेह था तुमसे...
पर तुम्हें मंजूर था "प्रेम"...
इससे कमतर कतई नहीं...
हमने भी मान लिया आखिर...
कि प्रेम है तुमसे...
कि कहीं "स्नेह" का अधिकार भी ना खो दूं...
पर तब परिवर्तन हो चुका था तुम्हारी जिंदगी में...
जब हमने अपने हृदय में तुम्हारे लिए परिवर्तन पाया...
चाहता तो वापस आ सकता था वहां से उल्टे पांव..
पर अच्छा लग रहा था शायद अब...
तुम्हारा प्रेम भी,
या तुम्हारे लिए प्रेम में रहना...
मानों मैं अपराजित होता चला जा रहा होऊं..
उदित होते सूर्य के भांति एकदम ज्वलंत...
एक ही चीज रह गई हमारे मध्य..
जो कहीं न कहीं समानता बना रहे थे...
कुछ था,जो हम दोनों ही ना कर पाए..
एक शीघ्रता,हमसे ना हो पाई..
और प्रतीक्षा तुमसे...
अब कर सकते थे हम बस एकतरफा प्रेम...
बिना तुम्हें बताए...
पर हमने उचित कुछ और ही समझा...
उदय
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