कभी कभी हम चीजें छोड़ चुके होते हैं...(pending)
कभी कभी हम चीजें छोड़ चुके होते हैं...
पर फिर भी नहीं छूटती,मानसिक चेतनाए...
वो परिकल्पना,वो यथार्थ...
सब भुला दिया गया होता है...
होती हैं सिर्फ स्मृतियां...
जो घर कर रही होती हैं दिन ब दिन...
मामूली सी अवहेलनाएं,बड़ी बड़ी चेतनाएं...
सब बस घिरा हुआ होता है,फिर भी स्वतंत्र...
हम बस निहार रहे होते हैं...
अपने अंतर्मन को...
कि शायद कहीं कुछ मिल जाए...
सूचक की भांति,और बता दे हमें...
अभिक्रिया हो जाने से पहले ही उसका परिणाम...
पर हम कर ही क्या सकते हैं...
सिवाय बस एकटक देखने के...
और देख भी रहे होते हैं...
अपने अंदर के समेटे हुए पाप को...
जो वास्तव में नहीं होता हमारा...
पर फिर भी होता है...
और छूट जाता है अधूरा ही...
ठीक उसी रसायनिक अभिक्रिया की भांति...
या उसे संतुलित करने को...
पर नहीं होता...
समय आगे जा चुका होता है...
या फिर शायद छूट चुका होता है कहीं पीछे...
और हम आगे,बहुत आगे...
अनवरत आगे....
इच्छा होती है
थोड़ी देर रुक लेने को...
सहता लेने को...
पर समय है ना...
मानों दोनो में उत्तर और दक्षिण ध्रुव का अंतर हो...
मिलता ही नहीं....
और धकेलता ही चला जाता है...
जैसे जैसे वो भी आगे....
और फिर एक दिन वो भी गोलार्द्ध में संलिप्त...
और हम भी...
संतुलन
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