नज़्म: “मुल्हिद का इक़रार”
नज़्म: “मुल्हिद का इक़रार”
मैंने ख़ुदा से नहीं,
अपने ख़ुद के साए से बग़ावत की है।
तशद्दुद नहीं...
बस सवालों की आग मेरे सीने में बस गई है।
लोग कहते हैं मुल्हिद…
पर मैं तो बस इतना जानता हूँ...
कि आंखें बंद करके सज्दा करने
को ही इबादत मानता हूं...
ख़ुदा अगर है,
तो यक़ीनन मेरे सवालों से ख़फ़ा नहीं होगा;
और अगर नहीं,
तो फिर मेरी तलाश में ही वफ़ा नहीं होगा...
मैंने दरीचों में उजाला ढूँढा,
मंदिरों-मस्जिदों में नहीं;
मैंने खुद को पढ़ा;
किताबों में लिखे अनर्गल फ़रमानों को नहीं।
मैं मुल्हिद हूँ…
मगर दिल में कोई ख़लिश या डर नहीं बचा;
क्योंकि मैंने झूठ को जगह न दी—
और सच से कभी मुँह नहीं चुरा रखा।
अगर ख़ुदा है...
तो मुझे मेरी सच्चाई पर सज़ा क्यों देगा?
और अगर नहीं....
तो ये फैसला-नवाजी ही क्यों कि उसके सरो-कशी पे सजा कौन देगा?
~उदय'अपराजित🥀
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